



बहुतों ने वोट दिया, कितनों ने नोट दिया।
कुछ को तालियाँ मिलीं, कुछ को गालियाँ मिलीं।
हारने वाले रोए, वोटर मौज से सोए,
देश कहां जाता है, किसी को पता नहीं, सब यही कहते हैं हमारी खता नहीं।
गांव में खाने को लोग हैं तरसते, शहर में ओस बन रुपये बरसते।
निष्पक्ष समाचार – धीरज जॉनसन
चुनाव का नाम सुनते ही बेढब बनारसी की ये पंक्तियां याद आ गई। मुद्दों के बाद अब वादों से, हलचल मची हुई है। कौन सा नया अवसर फिर सामने आ जाये कह नहीं सकते। बातें बाटने का दौर शुरू हो गया है और तरह तरह के आश्वासन, दिवास्वप्न की भांति भेंट किये जा रहे है और लोग जब तक इस मायाजाल को समझेंगे तब तक विकास कहीं और हो रहा होगा।
इस तरह से पूरे बाज़ार में गर्मी के मौसम में मानसिक ठंडाई देने का उपक्रम जारी है। इसके साथ ही अब वो भी बाजार में दिखाई दे रहे है जिन्हें इन सब से कोई लेना देना नहीं है कारण यह भी हो सकता है कि कोई काम भी नहीं बचा है तो भीड़ का ही हिस्सा बन जाओ। इसका फायदा किसको मिलेगा ये तो सौदागर जाने।
चाय पान की दुकान पर कुछ देर बैठ कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि असली समीक्षक तो मेहनतकश जनता है और बिना किसी अखबार पढ़े, आपको जमीनी हकीकत से रूबरू होने का मौका प्रदान करती है। इस बार ख्वाब बांटने का प्रयास भी हो सकता है औऱ हो सकता है भविष्य में बहुत कुछ मिल जाए।
जो बात हम करने जा रहे है वह कुछ ऐसी है प्रदेश की राजधानी से 265 किमी. दूर दमोह में उपचुनाव होना है और आप ऊपर लिखी बातों से अब तक समझ गए होंगे कि चुनाव पर इतना विस्तार क्यो दिया गया। एक प्रश्न भी उद्वेलित करता है कि विकास के लिए बटवारें होते है कि बटवारें के लिये विकास। विकास का पैमाना स्वच्छ सड़क, दीवारों की पेंटिग्स और स्लोगन को माना जाए या चुनावी मॉडल।
समाज की सामजिक, राजनीतिक चेतना भ्रमण पर है। जनता भी अपने धैर्य और उम्मीद के बीच है, चाहे कोई भी आये या जाए, जब जन सरोकार का मुद्दा सिर्फ वादों में सिमट कर रह जाता हो और वोटिंग सिर्फ जाति-बिरादरी, धन-बल के नाम पर हो तो विकास की संकल्पना दिवास्वप्न के समान है।
यहाँ से अन्य जिलों की ओर जाने वाली सड़क कुछ वर्ष पहले बनी थी जिनकी हालत बदतर हो गयी है आये दिन कोई न कोई एक्सीडेंट होता रहता है। बेरोजगारी, भिक्षावृत्ति, फुटपाथ व अन्य जगह अवैध कब्ज़ा, गंदगी,सार्वजनिक शौचालयों की कमी, पार्किंग न होना, पेयजल की समस्या, बारिश के मौसम में पानी भर जाना सामान्य हो गया है। पेट्रोल डीजल की बढती कीमतों से सभी को परेशानी का सामना करना पड़ा। मजदूरों की स्थिति भी बदतर है।
अनेक मुद्दे ऐसे है जिनकी एक लम्बी सूची है, जो चुनाव के दौरान अधिकांशतः विषय बनते रहे है लेकिन अब स्थिति यह है कि आम जनता के बीच यह एक तथाकथित तौर पर मुद्दा है जो सिर्फ वादों के दौरान याद आता है अन्यथा लोग भूल चुके है कि उनके भी अधिकार है। फिर यह भी कहते है अच्छे लोग जब तक राजनीति में नही आएगे तब तक सपने सदैव अधूरे रहेंगे। और कर भी क्या सकते है उनकी भी अपनी मजबूरी है आखिर किसको चुने..? मतदान तो करना ही है।