एडिटोरियल डेस्क- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने विश्व पर्यावरण दिवस के इस वर्ष की थीम रखी है ‘जैव विविधता’. कोलंबिया इस साल जर्मनी के सहयोग से विश्व पर्यावरण दिवस की मेजबानी कर रहा है. पिछले साल 2019 में यह ‘वायु प्रदूषण’ पर केंद्रित था. पर्यावरण के प्रति बढ़ती यह चिंता वैश्विक है. दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पर्यावरण के खतरे किसी न किसी रूप में मौजूद हैं. कहीं जल प्रदूषण, कहीं वायु प्रदूषण, कहीं ई-कचरा, कहीं गैस उत्सर्जन के रूप में ये मौजूद हैं और अब तो इसके नए-नए रूप भी सामने आते जा रहे हैं. पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के फोरम लगातार आगाह करते आ रहे हैं कि हमारा पर्यावरण खतरे में है. तमाम सावधानियों, उपायों, नियमों के बावजूद पर्यावरण संरक्षण में एक भी पायदान आगे नहीं बढ़ पाए हैं. इस सदी के सबसे बड़े संकट के रूप में कोरोना जैसी महामारी हमारे सामने है. इस संकट का पर्यावरण से गहरा नाता है. पिछले छह महीनों से हम यह भलीभांति जान गए हैं कि प्रकृति का जिस तरह से दोहन पूरी दुनिया ने किया है, कोरोना जैसी महामारी उसी की उपज है.
जैव विविधता कोई नवीन वैज्ञानिक खोज नहीं है. पर्यावरण पर मंडराते खतरों को रोकने के लिए इसकी जरूरत बहुत पहले ही महसूस कर ली गई थी लेकिन यह चिंता का रूप नहीं ले पाई है. यूएनपीई के अनुसार जैव विविधता में 8 मिलियन वनस्पतियों और पशुजातियाँ शामिल हैं और पारिस्थितिकीय तंत्र आनुवंशिकीय विविधता के कारण इन्हें बचाए हुए है. पिछले 150 वर्षों में जीवन रक्षा कवच घटकर आधी रह गई है. अगले दस वर्षों में पहचानी जा सकने वाली चार प्रजातियों में से एक का इस धरती से नामो-निशान मिट जाएगा. मनुष्य की प्रकृति पर प्रतिवर्ष जितनी निर्भरता है उनको पूरा करने में 1.6 गुना पृथ्वी की जरूरत पड़ेगी. इन आंकड़ों से यह समझा जा सकता है कि धरती पर जीवन और अस्तित्त्व का संकट धीरे-धीरे बढ़ता ही जाएगा. हमें यह पता होना चाहिए कि हर साल समूचे वातावरण को आधे से अधिक हिस्सा आक्सीजन समुद्री पौधों से मिलता है. एक परिपक्व पौधा लगभग 22 किलोग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड सोखकर बदले में इतना ही ऑक्सीजन प्रदान करता है. बावजूद इसके प्रकृति के साथ मनुष्य का दुर्व्यवहार जारी है.
हमारा भोजन, पानी, हमारी साँसें और जलवायु जो हमें रहने के लिए अनुकूलन करती है वह सब प्रकृति के कारण ही संभव हो पाटा अहै. संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास के लक्ष्यों में गरीबी, भूख, भूजैविकी, स्वच्छ जल, ऊर्जा, उत्पादन एवं उपभोग, संतुलित जलवायु को शामिल किया है और इनके लक्ष्यों को पूरा करने पर जोर दिया है. जैव विविधता इसके लक्षित कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जिसके वैश्विक स्तर पर क्रियान्वयन की मुहिम चलाई जाने की योजना है.
जैव विविधता, धरती और जल के जीवन का आधार है. इसकी जितनी जरूरत जीवन जीने में है उतनी ही जरूरत जीवन अस्तित्व को बनाए और बचाए रखने में भी है. स्वच्छ हवा, पानी, पौष्टिक भोजन, जीवन रक्षक दवाएं, प्राकृतिक महामारी का प्रतिरोधन, जलवायु परिवर्तन का अनुकूलन ये सब इसी के कारण संभव हो पाता है. इनमें से यदि एक भी तत्त्व गायब होगा तो वह पूरे जीवन प्रणाली को प्रभावित करता है और इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं. कोरोना संकट से यह बात साफ़ है कि अगर हम जैव विविधता को नष्ट करेंगे तो हम मानव जीवन के लिए आवश्यक पूरे तंत्र को नष्ट रहे होंगे. कोरोना जैसे विषाणुओं से हर साल बहुत बड़ी संख्या में लोग बीमार होते हैं और लाखों मौतें होती हैं. मनुष्यों में होने वाली लगभग 75 % संक्रामक बीमारियाँ पशुजन्य होती हैं अर्थात् पशुओं से मनुष्यों के बीच फैलती हैं. जब-जब भी पर्यावरण में परिवर्तन होगा पशुजन्य संक्रामक बीमारियों का खतरा बना रहेगा. कोरोना विषाणु के बारे में लगभग साबित हो चुका है कि यह चमगादड़ से मनुष्यों में फैला है. अध्ययन बताते हैं कि भारी मात्रा में वनों की कटाई के कारण चमगादड़ों का आवास भी नष्ट हुआ है. यह एक ऐसा जंतु है जो कीड़ों को खाकर पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करता है.
वर्तमान कोरोना संकट एक बानगी भर है. मनुष्य न जाने कितनी प्रकृति प्रदत्त चीजों के साथ दिन-रात खिलवाड़ करता चला आ रहा है जिसका भुगतान हमें कोरोना जैसी महामारी के रूप में अपनी जान देकर करना पड़ रहा है. वैज्ञानिक अध्ययनों में यह भी पाया गया है कि अगली महामारी जैसी स्थिति कब आ जाये इसकी कोई निश्चित तिथि नहीं है. इबोला, निपाह, मार्स, जीका, एनवन एचवन जैसे विषाणुओं ने दुनिया के कई देशों में हाहाकार मचाया. प्रकृति मौका देती है, चेतावनी देती है, लेकिन अति बर्दाश्त नहीं करती. अलग-अलग घटनाओं, प्राकृतिक आपदाओं के हजारों उदाहरणों को पेश किया जा सकता है. वनों की लगातार सिकुड़न अभी पता नहीं, कितनी महामारियों और प्राकृतिक आपदाओं को लेकर आयेगी. पर्यावरण संरक्षण को लेकर दुनिया के कई संगठन लगातार अभियान चला रहे हैं, सम्मलेन की संधियों और प्रोटोकॉल का पालन करने पर जोर देते हैं लेकिन इन सब प्रयासों का कोई सकारात्मक फल नहीं दिखाई दे रहा है. इस साल का जैव विविधता को लेकर चलाया जाने वाला वैश्विक अभियान काफी महत्त्वपूर्ण है. कोरोना संकट जैसे समय में यह और अधिक प्रासंगिक विषय बन जाता है. प्रकृति के नियमों के अनुरूप जीव जगत का सह-अस्तित्व और साहचर्य ही हमें कई तरह के संकटों से बचा सकता है और इसके लिए प्रयास केवल मानव समाज को ही करने की आवश्यकता है क्योंकि इसी प्रजाति ने प्रकृति का सबसे अधिक दोहन किया है. जैव विविधता में में विविधता शब्द और इसकी अवधारणा में यह बात निहित है कि जंतुओं और वनस्पति के एक दूसरे के सह अस्तित्व और साहचर्य के बिना जीवन की कल्पना व्यर्थ है. अन्योन्याश्रितता (एक दूसरे पर परस्पर निर्भरता), जैव विविधता की विशेषता है और यही विशेषता जीव जगत के अस्तित्व का सबसे बड़ा आधार है.
जीवन अस्तित्व के आधार जैव विविधता के बारे में देर से ही सही, वैश्विक स्तर पर चिंतन नए सिरे से प्रकृति और जीवन के रिश्ते को नई दिशा देगा जिसका केंद्र सह-अस्तित्व होगा क्योंकि जैव विविधता केवल किसी एक भौगोलिक क्षेत्र या किसी एक देश का मसला नहीं बल्कि इस धरा के हर कोने को इसके लिए संयुक्त प्रयास जरूरी है. इसके लिए सरकारी, गैर सरकारी और व्यक्तिगत स्तर पर जो भी प्रयास होने चाहिए उसकी पहल होनी ही चाहिए ताकि हम आने वाली पीढ़ी को एक सुनहरा भविष्य दे सकें.
डॉ. विवेक जायसवाल डॉ.हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर पत्रकारिता विभाग