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भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी फेल?

स्पेनिश फ्लू महामारी के एक सदी बाद आज कोरोनावायरस ने मानवजाति को उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहां पर औद्योगिक क्रांति, तकनीक और संसाधनयुक्त विकास सिर्फ छलावा रह गया है। आर्कटिक से लेकर अंटार्कटिका तक और सहारा रेगिस्तान से लेकर 4.60 करोड़ एकड़ में जलकर ख़ाक हो चुके ऑस्ट्रेलिया के जंगलों तक, आज प्रकृति भी खुद को बचाने की कोशिश में लगी हुई है। कहा जाता है कि अमेज़न रैनफॉरेस्ट इस पृथ्वी का फेफड़ा है, जिसके नुकसान से मानवजाति गहराई तक प्रभावित हो सकती है। कुछ इसी तरह की परिस्थिति आज भारत में कोरोना के दूसरी लहर ने निर्मित कर दिया है, जो प्रतिदिन चार लाख से ज्यादा संक्रमण फैलाने और अनाधिकारिक रूप से 16 लाख से ज़्यादा लोगों को मौत की नींद सुला चुका है। एक पल खुशी का भी आया था, जब भारत सरकार आजादी के बाद पहली बार, अमेज़न रैनफॉरेस्ट की तरह दुनिया का फेफड़ा बनकर उभरी थी, लेकिन आज खुद भारत ऑक्सीजन और वेंटीलेटर पर लेटा है। यह सब हुआ गैर-जिम्मेदार और राजनीतिक लापरवाही के कारण। भारत ने महामारी की शुरुआत में 150 से भी ज्यादा देशों को क्लोरोक्वीन की दवा भेजी, साथ ही मास्क और पीपीई किट में आत्मनिर्भर बनते हुए दुनिया को इसका एक्सेस मुहैया कराया, तब दुनिया हमें फार्मास्यूटिकल्स हब मानती थी। आज भारत ने फिर से महामारी से लोगों को बचाने के लिए 90 से ज्यादा देशों को 6.60 करोड़ वैक्सीन भेजी हैं। यकीनन सदियों बाद यह पहली बार ही था जब भारत ने किसी कूटनीतिक मामले में अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, जर्मनी, जापान जैसी महाशक्तियों को खुदपर निर्भर बनाया। इस दौर में रहने वाले दुनियाभर की 7.8 अरब लोगों ने पहली बार वसुधैव कुटुंबकम् वाले भारत को देखा और वैश्विक सरकारों के साथ ही वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसी अनेकों नामी संस्थानों ने भारत को वैक्सीन का सुपरपावर कहते हुए, भारतीय सरकार की अविश्वसनीय दूरदर्शिता और कूटनीति की तारीफ़ की, क्योंकि कई देशों को दी गई यह मदद व्यापार नहीं अनुदान था।

भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी

चूँकि भारतीय राज्यों में चुनाव और सत्ता परिवर्तन की महत्वाकांक्षा ने राजनीतिक शिखर पर बैठे नेता को अतिआत्मविश्वासी बना दिया, इसलिए देश में यह त्रासदी आयी है। 28 जनवरी 2021 को विश्व आर्थिक मंच की वर्चुअल बैठक में, दुनियाभर के नेताओं को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोना से लड़ाई में भारत को विजेता घोषित कर दिया, वहीं पर हुई इस जगहंसाई और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की जल्दबाजी ने 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की इकोनामी बनने के सपने को लाखों टुकड़ों में तोड़कर बिखेर दिया। चुनावी रैलियों में भीड़ और बहुसंख्यक धार्मिक आयोजन को नजरअंदाज करके सत्ताधीश ने संक्रमण की सुनामी को भारत की आत्मा यानी गांव में घर-घर तक पहुंचा दिया है। इसी का परिणाम है कि रवांडा, डेनमार्क, जापान, और ब्रिटेन के राष्ट्रध्यक्षों ने भारत की अपनी द्विपक्षीय यात्रा को कैंसिल कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं, खुद प्रधानमंत्री मोदी को भी पुर्तगाल, फ्रांस और जी7 शिखर सम्मेलन के लिए ब्रिटेन दौरा रद्द करना पड़ा। चूंकि भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य पर आजादी के बाद से कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया, इसलिए आज घर-घर से लाशें निकलकर, शमशानों को पार करते हुए, जीवित नदी का दर्जा प्राप्त गंगा में तैर रही हैं। यही हाल अब भारत की टीका कूटनीति का भी हो चला है। जिस 6.60 करोड़ वैक्सीन को भारत ने 90 देशों में भेजा, उनमें से सिर्फ 1 करोड़ वैक्सीन ही अनुदान था, जबकि 2 करोड़ टीका विश्व स्वास्थ्य संगठन और गावी संगठन के कोवैक्स प्रोग्राम के तहत भेजी गई थीं, और तो और 3.6 करोड़ वैक्सीन को सरकार ने विभिन्न देशों को बेचा था; लेकिन भारत सरकार ने पूरी दुनिया में इसे दान की राजनीति के रूप में प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ा। उन्होंने देशवासियों को भी पहले कभी नहीं बताया कि विभिन्न राजदूतों के साथ जिस वैक्सीन बॉक्स की फोटोज को विदेश मंत्रालय रोज़ अपने वेबसाइट में अपलोड कर रहा था, वह दरअसल सिर्फ़ मदद नहीं, बल्कि 84 प्रतिशत बिजनेस था। क्या इसी तरह सरकार भारत की सॉफ्ट पॉवर को बढ़ाएगी, जबकि दूसरी ओर क्वाड समूह भारत को वैक्सीन हब बनाने की प्रतिबद्धता जता रहे हैं।

भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी

भारत ने जिन देशों को टीका बेचा और अनुदान दिया, उनकी शिकायत है कि भारत ने उन्हे अधर में छोड़ दिया। यद्यपि अब ना ही भारत उन्हें कोई वैक्सीन निर्यात कर रहा है, और ना देश की जरूरतों को ही पूरी कर पा रहा है। स्थितियां यह है कि दुनिया के कई देश, विशेषकर अफ्रीकी महाद्वीप से, भारत सरकार पर गुस्सा जाहिर करते हुए तत्काल वैक्सीन की मांग कर रहे हैं। इसलिए नहीं, कि उनके देशों में संक्रमण या मौतों का आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा बल्कि इसलिए ताकि वह जिन्हें पहला टीका लगा चुके हैं उन्हें उसकी दूसरी डोज दी जा सके, अन्यथा वैक्सीन का प्रभाव ही निष्क्रिय हो जाएगा; इससे भारत की पूरी मेहनत व सॉफ्ट पावर धरी की धरी रह जाएगी। दक्षिण अफ्रीका जैसे देश ने तो भारत की वैक्सीन को वापस तक लौटा दिया है, और हाल ही में ब्रिटेन, कनाडा, ब्राज़ील जैसे देशों ने भारत को वैक्सीन राष्ट्रवाद अपनाने पर भी ख़ूब खरी-खोटी सुनाई है। यकीनन इससे भी देश की सॉफ्ट पॉवर और फॉर्मेसी हब की छवि को बहुत धक्का पहुंचा है। भारत की इस मजबूर स्थिति में वैक्सीन की इस कमी को पूरा करने का भार अब चीन और रूस ने उठाया है। दोनों ने सौम्यता और दबावपूर्वक तरीके अपनाकर अधिकतर देशों को जल्द से जल्द वैक्सीनेट करने की योजना प्रारंभ कर दी है, ताकि बाद में उन्हें रोकने के लिए कोई देश बचे ही ना। भारत आज अपने इस चोट का जिम्मेदार खुद ही है क्योंकि जो देश सदियों बाद, विश्वगुरु भारत के भरोसे थे; भारत ने उन्हें बीच रास्ते में ही छोड़ दिया। आत्मग्लानि तो तब और बढ़ जाती है कि उसी विश्वगुरु भारत के लिए अब छोटे-छोटे देशों से मदद आ रही है। इस तरह किसी दूसरे देश से मदद ना लेने की भारतीय नीति अब, लाखों लाशों के साथ किसी एक कब्र में दफन हो चुकी है। आज यूरोपियन यूनियन जैसे देश, भारत की हंसी उड़ा रहे हैं कि उन्होंने भारत को फार्मेसी का हब बनाकर सबसे बड़ी गलती कर दी। चार्ली हेब्दो जैसी मैगज़ीन के द्वारा कटाक्ष किया जा रहा कि जिस देश के पास 33 करोड़ देवी-देवता हैं, वो अपने लिए ऑक्सीजन तक नहीं बना पा रहा।

भारत की वैक्सीन डिप्लोमेसी

इन सब के बीच सरकारों द्वारा आंकड़े छुपाने का खेल भी ज़ारी है। हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपने एनालिटिकल आंकड़े जारी किए हैं जिसके अनुसार लगभग 70 करोड़ भारतीय कोरोनावायरस से संक्रमित हो चुके होंगे। कुछ समय पहले सीएनएन ने भी 50 करोड़ लोगों पर यह आंकलन किया था। लेकिन तथ्य सरकारी आंकड़ों से कोसो दूर हैं। मौत के आंकड़ों पर नजर डालें तो कुछ दिन पहले यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन ने अपने अनुमान में कहा था कि लगभग 7 लाख मर चुके हैं और जल्दी ही 10 लाख का आंकड़ा पार हो जाएगा। अगर न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट पर बात करेंगे, तब तो आप वैसे ही खुद को अधमरा समझने लगेंगे, उनके अनुसार सबसे खराब दौर से गुजरने के बाद आजतक भारत में 42 लाख से ज़्यादा लोग मर चुके हैं, जिनका दूर-दूर तक कोई रिकॉर्ड नहीं। निश्चित रूप से यह आंकड़े डराने वाले हैं क्योंकि यह सब सरकार की लापरवाही और विफल नीतियों का नतीज़ा है, जिन्होंने अपनी जनता को खुद की महत्वाकांक्षा के लिए बलि का बकरा बनाया। बहरहाल, महामारी का दंश तो अब लग ही चुका है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं, कि भारत फिर उठेगा। हालांकि सरकारों की नाकाम नीतियों की वजह से जिन्होंने अपनों को खोया, उसकी भरपाई संभव नहीं है। निश्चित ही यह एक दुख है, लेकिन किसी एक व्यक्ति या पार्टी की नीतियों से राष्ट्र की परंपरा और मानवता का धर्म नहीं बदला करते। यह महामारी भी राष्ट्र के भविष्य की दिशा तय करने के लिए अन्ततः एक अच्छा सबक साबित होगा, जो प्रकृति को गति, मानवता को बढ़ावा और संसाधनों की उपर्युक्त जरूरत को मजबूती प्रदान करेगा। यही इस कोरोनावायरस का मूल सिद्धांत है कि मानव, धर्म और विज्ञान कभी भी प्रकृति से ऊपर नहीं उठ सकतीं और इससे खिलवाड़ पूरी मानवजाति का विनाश ही होगा।

 

 

 

 

 

कुमार रमेश
अपराधशास्त्री, विदेशी मामलों के जानकार एवं वर्ल्ड रिकॉर्ड होल्डर
Twitter: @KumarRamesh0

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